सोशल-डिजिटल मीडिया पर सख्ती के संकेत
सोशल और डिजिटल मीडिया पर न्यायपालिका और न्यायाधीशों के बारे में अनर्गल टिप्पणियां सामने आ रही हैं। अब ऐसा लग रहा है कि न्यायपालिका इस तरह की गतिविधियों में संलिप्त होने वालों से सख्ती से निपटने जा रही है। सोशल मीडिया और डिजिटल मीडिया के रवैये का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि आज सूचना क्रांति के दौर में लोग फेसबुक, व्हाट्सएप, ट्विटर, इंस्टाग्राम जैसे प्लेटफार्म पर न्यायपालिका और न्यायाधीशों के बारे में तरह-तरह की आपत्तिजनक टिप्पणी करते रहते हैं।
संचार क्रांति के दौर में न्यायिक फैसलों और आदेशों के परिप्रेक्ष्य में सोशल मीडिया पर न्यायपालिका और फैसले सुनाने तथा मामलों की सुनवाई करने वाले न्यायाधीशों के बारे में आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। न्यायिक आदेश और फैसलों के साथ ही संबंधित न्यायाधीशों के बारे में सोशल मीडिया पर अमर्यादित भाषा की भरमार देखी जा सकती है। इस पर शीर्ष अदालत पहले ही चिंता व्यक्त कर चुकी है। केन्द्र सरकार ने भी न्यायालय से अनुरोध किया है कि प्रिंट-इलेक्ट्रानिक मीडिया की बजाय पहले डिजिटल मीडिया को नियंत्रित करने की जरूरत है।
हालांकि सोशल मीडिया पर न्यायपालिका पर अधिकांश टीका-टिप्पणियों को नजरअंदाज कर दिया जाता है लेकिन कभी-कभी न्यायालय इनका संज्ञान ले लेता है और फिर इनमें अवमानना की कार्यवाही करता है। सोशल मीडिया पर अपनी तल्ख टिप्पणियों की वजह से शीर्ष अदालत ने पूर्व न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू को अवमानना का नोटिस दे दिया था। बाद में काटजू के माफी मांगने पर यह प्रकरण खत्म हुआ।
सामाजिक कार्यकर्ता और अधिवक्ता प्रशांत भूषण का मामला अभी बहुत पुराना नहीं हुआ है। न्यायपालिका के प्रति अपमानजनक ट्वीट के कारण शीर्ष अदालत ने उन्हें अवमानना का दोषी ठहराते हुए उन पर एक रुपये का सांकेतिक जुर्माना किया था। इस मामले में भूषण ने जुर्माना अदा करने के बाद पुनर्विचार याचिकायें दायर कर रखी हैं। देश में सोशल मीडिया के कई मंच उपलब्ध होने की वजह से लोग अपने विचार इन पर साझा करते हैं लेकिन जरूरी नहीं है कि हर व्यक्ति के विचार या पोस्ट के पीछे दुर्भावना या दूसरे की प्रतिष्ठा तार-तार करने की मनोवृत्ति छिपी हो। ऐसे में यह विश्लेषण करना बहुत जरूरी होता है कि आखिर व्यक्ति किस सीमा तक अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का इस्तेमाल कर सकता है।
न्यायपालिका और न्यायाधीशों के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणियों के मामले को आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने बहुत गंभीरता से लिया है। इसका अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि हाल में उच्च न्यायालय ने कहा है कि जिन लोगों का न्यायपालिका में विश्वास नहीं है, वे संसद जाकर आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय को भंग करने का अनुरोध कर सकते हैं। न्यायमूर्ति राकेश कुमार और न्यायमूर्ति जे. उमा देवी की पीठ ने बेहद सख्त लहजे में कहा है कि प्रदेश में न्यायपालिका को निशाना बनाकर सोशल मीडिया पर की जा रही पोस्ट के पीछे किसी बड़ी साजिश की संभावना पर भी न्यायालय गौर करेगा।
आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने अप्रैल में इन आपत्तिजनक टिप्पणियों का संज्ञान लेते हुए राज्य में सत्तारूढ़ वाईएसआर कांग्रेस के एक सांसद और एक पूर्व विधायक सहित कम से कम 49 व्यक्तियाें को न्यायालय की अवमानना के नोटिस दे दिये। इन पर आरोप है कि इन्होंने हाल ही में कतिपय महत्वपूर्ण मामलों में फैसला और आदेश सुनाने वाले उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार और अन्य प्रकार के गंभीर आरोप लगाये और इन्हें सोशल मीडिया पर पोस्ट किया।
इसके बाद, उच्च न्यायालय के प्रभारी रजिस्ट्रार द्वारा याचिका पर सुनवाई के दौरान न्यायाधीशों ने उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के बारे में सोशल मीडिया पर हो रही आपत्तिजनक टीका-टिप्पणियों के मामले में कार्रवाई करने में विफल रहने पर सीआईडी की कार्यशैली पर नाराजगी व्यक्त की थी। न्यायालय ने चेतावनी देते हुए कहा है कि अगर राज्य में कानून का शासन नहीं रहा तो फिर उसे संविधान के तहत प्रदत्त अपने अधिकारों का इस्तेमाल करना पड़ेगा क्योंकि इसे अगर गंभीरता से नहीं लिया गया तो लोग कानून अपने हाथ में ले सकते हैं।
इस घटनाक्रम को तेलुगू देशम सरकार के 2014 से 2019 के कार्यकाल के दौरान अमरावती में भूमि अधिग्रहण सहित विभिन्न परियोजनाओं में कथित अनियमितताओं की जांच के लिये वाईएसआर कांग्रेस सरकार द्वारा गठित विशेष जांच दल की जांच पर न्यायालय की रोक और इसके बाद मुख्य न्यायाधीश जे. के. माहेश्वरी की पीठ के 15 सितंबर के एक आदेश से जोड़कर देखा जा रहा है। जरूरी है कि अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार के इस्तेमाल में मर्यादित भाषा का इस्तेमाल किया जाये।
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