मनोज्ञान – ‘जैसे जीने के लिए साँसें ज़रूरी हैं, वैसे ही जीतने के लिए मन का रचनात्मक ज्ञान ‘मनोज्ञान’ ज़रूरी है!’ केके
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एक बहुत बड़ा योद्धा युद्ध में पराजित होने के बाद अपना धन वैभव सब कुछ गंवा बैठा। दरिद्रता के कारण उसकी बुरी हालत हो गई। उसने अनेक उपाय किए, लेकिन पुराना वैभव प्राप्त नहीं कर पाया। एक दिन जब वह कहीं से गुजर रहा था, उसने रास्ते में एक मंदिर देखा। दिन ढल चुका था, इसलिए सुरक्षित स्थान जानकर वह रात को वहीं ठहर गया। आधी रात में किसी आहट से उसकी आंख खुली। उसने देखा कि कोई आदमी एक विचित्र घड़ा लिए मंदिर से बाहर निकला और घड़े की पूजा करता हुआ कहने लगा, ‘हे जादुई कुंभ, मेरे लिए एक सुंदर शयनगृह तैयार कर दे।’ क्षण भर में वहां सचमुच एक शयनगृह तैयार हो गया। कई अन्य चीजों की मांग की। वे भी उसे मिल गईं। फिर उसने आसन, धन-धान्य और भोजन आदि की मांग की। वे सब चीजें भी फौरन ही तैयार हो गईं। तब योद्धा सोचने लगा कि क्यों न मैं इस सिद्ध पुरुष को प्रसन्न करूं। वह उनकी सेवा में लग गया। सिद्ध पुरुष ने प्रसन्न होकर पूछा, क्या चाहते हो? योद्धा ने कहा, ‘मैं आपकी कृपा की सहायता से अपनी गरीबी दूर करना चाहता हूं।’ सिद्ध पुरुष ने कहा, ‘बोलो, मुझसे तुम्हें क्या चाहिए? कोई विद्या या उस विद्या से अभिमंत्रित घड़ा?’ योद्धा के मांगने पर सिद्ध पुरुष ने उसे घड़ा दे दिया। अभिमंत्रित घड़ा लेकर योद्धा वापस अपने गांव आया तथा अत्यंत सुंदर भवन बनवाकर आराम से रहने लगा। इतना सुख-वैभव पाकर वह खुशी से अभिमंत्रित घड़ा कंधे पर रखकर और मदिरा पीकर नृत्य करने लगा। नृत्य करते समय घड़ा गिर कर फूट गया और इसके साथ ही विद्या के प्रताप से प्राप्त वह सारा ऐश्वर्य भी नष्ट हो गया। उस योद्धा को एहसास हुआ कि दिव्य पुरुष से अभिमंत्रित घड़े की जगह यदि उसने वह विद्या ही मांगी होती तो घड़ा फूट जाने पर भी वह आराम से रह सकता था। लेकिन अब पछताने से क्या हो सकता था।
केके
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