मनोज्ञान – ‘आओ, हम ‘मनोदीप’ जलाएँ और मन को रोशन कर मन की ‘रचनात्मक शक्ति’ को जगाएँ!’ केके
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लक्ष्मी असुरों के यहां न रहें और देवलोक में निवास करें, देवता चिरकाल से अनुरोध करते रहे। परंतु उनकी प्रार्थना अनसुनी होती रही। लक्ष्मी ने असुरों के इलाके को छोड़ा ही नहीं। एक दिन अनायास ही लक्ष्मी देवलोक में आ गईं। देवता प्रसन्न भी थे और चकित भी। उन्होंने सत्कारपूर्वक उन्हें बिठाया। परंतु साथ ही असमंजस भी व्यक्त किया कि असुरों को छोड़कर यहां क्यों चली आईं! इस पर लक्ष्मी जी ने कहा, “सुर और असुर होने का पुण्य-पाप भगवान देते हैं। मेरा काम पराक्रम, संयम एवं सहयोग की जांच-पड़ताल करना है। जब तक असुर पराक्रमी और संयमी रहे, एक-दूसरे के सहयोगी रहे, मैं भी उनके साथ रही। अब वे बदल गए हैं। अहंमन्यता अर्थात अहंकार, आलस्य और दुर्व्यसन अपनाने लगे हैं। ऐसे लोगों के साथ मेरा निर्वाह कैसे हो सकता था।”
माँ लक्ष्मी की ये बात, “मेरा काम तो पराक्रम, संयम एवं सहयोग की जांच-पड़ताल करना है”, स्पष्ट कर देती है कि जहां पराक्रम, संयम एवं सहयोग की भावना है वहां माँ लक्ष्मी निवास करती हैं। और पराक्रम, संयम एवं सहयोग की भावना वहाँ पैदा होती है जहाँ दो या दो से अधिक मन आपस में संगठित होकर एक दूसरे के लिए सुख, शान्ति, सफलता तथा समृद्धि चाहते हों। परन्तु मन में दूसरे के लिए ऐसी कामना तब ही पैदा होती है जब मन की रचनात्मक शक्ति जागृत हो जाती है जो कि केवल ‘मनोदीप’ जलाने से ही संभव है। इसलिए आओ, हम ‘मनोदीप’ जलाएँ और मन को रोशन कर मन की ‘रचनात्मक शक्ति’ को जगाएँ! और ‘मन की रचनात्मक शक्ति’ को जगाकर अपनी तथा अपनों से जुड़े लोगों की ज़िन्दगी में सुख, शान्ति, सफलता, समृद्धि, सौहार्द एवं स्वस्थ दीर्घायु प्राप्त करें।
केके
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