‘मन का ज्ञान ही पशुत्व वृत्तियों को ख़त्म कर ‘इंसानियत’ पैदा कर सकता है!’
कीचड़ में लोटते और गंदगी चाटते सूअर को घिनौना जीवन जीते देखकर नारद जी को बड़ी दया आई। वह उसका उद्धार करने की बात सोचने लगे। महर्षि उस सूअर के पास पहुंचे और स्नेहपूर्वक बोले, “इस घिनौनी रीती से जीना तो नरक है।
‘मन का ज्ञान ही पशुत्व वृत्तियों को ख़त्म कर ‘इंसानियत’ पैदा कर सकता है!’
चलो तुम्हें स्वर्ग पहुंचा देते हैं। नारद जी की बात सुनकर सूअर तैयार हो गया और पीछे-पीछे चलने लगा। रास्ते में उसे स्वर्ग के बारे में अधिक जानने की जिज्ञासा हुई तो पूछ ही बैठा, “वहां खाने, लोटने और भोगने की क्या-क्या वस्तुएं हैं?” नारद जी उसे स्वर्ग का मनोरम वर्णन विस्तारपूर्वक बताने लगे। कौतूहलपूर्वक वह उन्हें सुनता रहा।
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‘मन का ज्ञान ही पशुत्व वृत्तियों को ख़त्म कर ‘इंसानियत’ पैदा कर सकता है!’
बात पूरी हो चुकी तो उसने दूनी जिज्ञासापूर्वक पूछा, “खाने के लिए गंदगी, लोटने के लिए कीचड़ और सहचर्या के लिए सूअर कुल है या नहीं?” महर्षि ने असमंजस में पड़ते हुए कहा, “मूर्ख, निकम्मी चीज़ों की वहां क्या जरुरत है? वहां तो देवताओं के अनुरूप वातावरण है और वैसे ही श्रेष्ठ पदार्थ सुसज्जित हैं। उन्हें पाकर जीवधारी धन्य हो जाते हैं।
‘मन का ज्ञान ही पशुत्व वृत्तियों को ख़त्म कर ‘इंसानियत’ पैदा कर सकता है!’
सूअर को नारद जी के उत्तर से कोई समाधान नहीं मिला। और मन ही मन सोचने लगा कि भला, मैले की टोकरी, गंधयुक्त कीचड़ और सूअर-कुल के बिना भी क्या कोई सुख मिल सकता है? ऐसा सोचकर सूअर ने आगे चलने से इन्कार कर दिया और वापस लौट गया!
‘मन का ज्ञान ही पशुत्व वृत्तियों को ख़त्म कर ‘इंसानियत’ पैदा कर सकता है!’
तो देखा, जब तक मन गंदगी और कीचड़ में ही सुख का अहसास करता रहता है तब तक उसे नरक में ही स्वर्ग का आभास होता रहता है! और मन की ये प्रवृति तब तक नहीं बदल सकती जब तक कि उसे स्वर्ग और नरक में अंतर महसूस न होने लगे। चूँकि मन की प्रकृति ही ऐसी होती है कि जब तक उसे जहाँ आनंद नहीं मिलता तब तक वह वहाँ नहीं टिकता। पर ये उसका दोष नहीं है, ये तो उसका स्वभाव है! इसलिए दोषी मन नहीं परन्तु उसे उसके स्वभाव का ज्ञान नहीं होना है! और इसलिए किसी भी मन कि पशुत्व वृत्तियां तभी ही ख़त्म हो सकती है जब उसे मन का ज्ञान ‘मनोज्ञान’ प्राप्त हो जाये!
केके
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